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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

अंत का आरंभ


''क्या रे रणजीत, सारा दिन निकल जाता है और धेले भर का काम नहीं होता।''

''हो कहा से, माँ? कुछ काम हो तब तो?''

''फिर कुछ करो?''

''क्या करूँ?'' मैं झुँझला गया, ''आप लोग ऐसा समझते हैं जैसे मैं स्वयं कुछ करने की इच्छा नहीं करता।''

''तो इसमें चिल्लाता क्यों है रे?...तुझे कुछ काम-धाम करने के लिए बोल भी नहीं सकते?'' न चाहते हुए भी माँ की आवाज़ तीखी हो गई।

मैं भुनभुनाता हुआ बाहर चला आया। मेरे मस्तिष्क में आग लग गई थी। बोलने को जिसे देखो, वही मुँह उठाकर दन्त से टोक देता है-'कुछ करो?'

अरे! क्या खाक करें? हमें बेरोजगार रहना, फोकट की रोटियाँ तोड़ना अच्छा लगता है क्या? अब काम करें क्या? कोई काम दे तब तो? जिस जगह जाओ, एक ही जवाब-'जगह नहीं है।' जगह निकलने पर आवेदन करो तो दूसरी समस्या-'दो साल का अनुभव'। यह 'अनुभव' कहाँ से लाना? दुनिया में ये सभी काम करने वाले क्या माँ के पेट से सब सीख कर आए थे? एक न एक दिन ये भी नौकरी पर पहली बार लगे थे। फिर हमीं से क्यों पूछते हैं-'अनुभव है?'

सब बदमाशियाँ हैं जी। अपने वालों को नौकरी देने के लिए अखबार में विज्ञापन देते हैं। सीधी भर्ती कर नहीं सकते, इसलिए यह नाटक रचते हैं। लेकिन इस नाटक के कारण मेरे जैसे नवयुवक जो मन में एक आस लिए वहाँ पहुँचते हैं, बार-बार की असफलताओं से कितने निराश हो जाते हैं-कोई सोचता है?

मन में एक विद्रोह की भावना भर गई। इच्छा हुई सारी व्यवस्था को आग लगा दूँ।

''पोंऽऽ...'' मोटर के तीखे हार्न से मेरी तंद्रा भंग हुई।

सामने ही वाचनालय था। मेरे कदम उधर बढ़े। मगर कुछ सोचकर विचार बदल दिया। पता नहीं क्यों अब वाचनालय जाने की इच्छा नहीं होती। बराबर ऐसा लगता-ग्रंथपाल वर्माजी चश्मे की ओट घूरते रहते हैं, ''...बर्खुरदार, दो बरस हो गए इन अखबारों में नौकरी ढूँढ़ते हुए। कब तक खोजते फिरोगे?''

वर्माजी ने यद्यपि आजतक कभी कहा कुछ नहीं था (वस्तुतः पूछा भी नहीं था।) मगर मुझे ऐसा लगता था। ऐसा मुझे अपने मुहल्ले से निकलते वक्त भी लगता था। हर व्यक्ति मुझे अपने को घूरता लगता। कोई आपसी बात कर रहा हो या हँस रहा हो, मुझे यही लगता मेरी ही बातें कर रहा है-'वह देखो, वह जा रहा है निठल्ला। अपने वृद्ध पिता पर बोझ बना हुआ...उनकी कमाई की रोटियाँ तोड़ने वाला...'

उस क्षण सचमुच ऐसी इच्छा होती चाहे यह वर्माजी हों या दिन-भर गालियाँ बकने वाले हमारे मुहल्ले के धोती परशाद...मारे दुहत्थड़ के बत्तीसी बाहर निकाल दूँ। तुम्हारे बाप का कुछ खाता हूँ? इतनी फिक्र हो रही है तो दो मुझे नौकरी?

''...अरे ओ गब्बरसिंह?...ताँगे में आना है क्या?'' सलीम चाचा अपना ताँगा खूबी से काट मेरे बिल्कुल करीब से निकाल कर ले गए।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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